।। दोहा ।।
श्री जगन्नाथ जगत गुरू, आस भगत के आप।
नाम लेते ही आपका, मिटे कष्ट संताप ।।
मैं अधम हूँ मूढ़ मति, पूजा विधि का ना ज्ञान ।
दोष मेरा ना धरना नाथ, मैं हूँ तेरी संतान ।।
।। चौपाई ।।
जय जगन्नाथ जगत के पालक, भव भय भंजन कष्ट निवारक ।
संगी साथी ना जिसका कोई, आसरा उसका बस एक तू ही ।।
भगतों के दुख दूर करे तु, संतों के सदा मन में बसे तू ।
पतित पावन नाम तिहारा, सारे जग में तू इक प्यारा ।।
शंख क्षेत्र में धाम है तेरा, पीड़ हरे है नाम तिहारा ।
सागर तट में नीलगिरी पर, तूने बसा लिया अपना घर ।।
जो तेरे रूप को मन में बसाये, चिन्ता जगकी ना उसे सताये ।
तेरी शरण में जो भी आये, विपदा से तू उसे बचाये ।।
धाम तेरा हर धाम से न्यारा, जिसके बिना है तीर्थ अधूरा ।
ना हो जब तक तेरे दर्शन, निष्फल जीवन और तीर्थाटन ।।
हाथ पैर नहीं है प्रभु तेरा, फिर भी सभी को तेरा ही आसरा ।
नाथ जगत का तू कहलाता, हर कोई तेरी महिमा गाता ।।
भगतों को तू सदा लुभाता, महिमा अपनी उनसे गँवाता ।
दासी या भगत था एक अनोखा, रूप तेरा साग भात में देखा ।।
अपने बगीचे से श्रीफल तोड़ा, दे ब्राह्मण को हाथ वो जोड़ा।
जा रहे प्रभु का करने दर्शन, श्रीफल ये कर देना अर्पण ।।
अनहोनी ऐसी हुई भाई, प्रभु ने बाँहे अपनी बढ़ाई।
हाथ से विप्र के ले नारियल, दासिया को दिया भक्ति का फल ।।
बंधु महंती की भक्ति कहें क्या, प्रभु को मित्र सा प्यारा वो था ।
दर्श का आस तेरे ले मन में, आया तेरे पुनीत नगर में ।।
संग में लाया कुटुंब था अपना, पहुँचा तुझ तक जब हुई रैना ।
सिंह द्वार मंदिर का बंद था, भूखे पेट बंधु सोया था ।।
भगत का कष्ट ना सह पाये भगवन, स्वर्ण थाल में लाये भोजन ।
साल वेग पूत मुगल पिता का नाम तेरा हर पल लेता था ।।
रथ यात्रा में आ पाये न पुरी, सैकड़ों कोस की थी जो दूरी।
गुहार लगाई जगन्नाथ को, आँऊ न जब तक रोकना रथ को ।।
सारा जग तब चकित हुआ था, भक्त की इच्छा जब पूर्ण हुई थी।
डूबे जग देव भक्ति में तेरे, गीत गोविंद रचा नाम में तेरे ।।
लिखते लिखते कवि ठहर गये, रचना पूर्ण कौन कर पाये।
पत्नि से कहा स्नान कर आँऊ, आकर फिर से बुद्धि लगाँऊ ।।
रूप कवि का धरा प्रभु ने, गीत अधूरा किया पूर्ण प्रभू ने ।
प्रेम से भक्त के प्रभु बंधे हैं, भक्ति प्रीति के डोर से जुड़े हैं।।
बिना मोल के प्यार से बिकता, कर्मा बाई की खिचड़ी खाता ।
जात पात का भेद न कोई, जो तुझे देखा सुध बिसराई ।।
शंकर देव निराकार उपासक, देख तुझे बने तेरे स्थापक ।
श्री गुरुनानक संत कबीरा, हर कोई तुझको एक सा प्यारा ।।
तुम सा प्रभु कोई और कहाँ है, भक्त जहाँ है तू भी वहाँ है।
भक्तों के मन को हरषाने, रथ पर आता दर्शन देने ।
पाकर प्यारे प्रभु का दर्शन, कर लो धन्य सभी यह जीवन ।।
जय जगन्नाथ प्रेम से बोलो, अमृत नाम का कहे कुंदन पी लो।
।। दोहा ।।
कृष्ण बलराम दोनों ओर बीच सुभद्रा बहन ।
नीलंचल वासी जगन्नाथ सदा बसो मोरे मन ।।