।। दोहा ।।

जय ब्रह्मा जय स्वयम्भू, चतुरानन सुखमूल।

करहु कृपा निज दास पै, रहहु सदा अनुकूल।

तुम सृजक ब्रह्माण्ड के, अज विधि घाता नाम।

विश्वविधाता कीजिये, जन पै कृपा ललाम।

।। चौपाई ।।

जय जय कमलासान जगमूला, रहहू सदा जनपै अनुकूला।

रुप चतुर्भुज परम सुहावन, तुम्हें अहैं चतुर्दिक आनन।

रक्तवर्ण तव सुभग शरीरा, मस्तक जटाजुट गंभीरा।

ताके ऊपर मुकुट विराजै, दाढ़ी श्वेत महाछवि छाजै।

श्वेतवस्त्र धारे तुम सुन्दर, है यज्ञोपवीत अति मनहर।

कानन कुण्डल सुभग विराजहिं, गल मोतिन की माला राजहिं।

चारिहु वेद तुम्हीं प्रगटाये, दिव्य ज्ञान त्रिभुवनहिं सिखाये।

ब्रह्मलोक शुभ धाम तुम्हारा, अखिल भुवन महँ यश विस्तारा।

अर्द्धागिनि तव है सावित्री, अपर नाम हिये गायत्री।

सरस्वती तब सुता मनोहर, वीणा वादिनि सब विधि मुन्दर।

कमलासन पर रहे विराजे, तुम हरिभक्ति साज सब साजे।

क्षीर सिन्धु सोवत सुरभूपा, नाभि कमल भो प्रगट अनूपा।

तेहि पर तुम आसीन कृपाला, सदा करहु सन्तन प्रतिपाला।

एक बार की कथा प्रचारी, तुम कहँ मोह भयेउ मन भारी।

कमलासन लखि कीन्ह बिचारा, और न कोउ अहै संसारा।

तब तुम कमलनाल गहि लीन्हा, अन्त विलोकन कर प्रण कीन्हा।

कोटिक वर्ष गये यहि भांती, भ्रमत भ्रमत बीते दिन राती।

पै तुम ताकर अन्त न पाये, ह्वै निराश अतिशय दुःखियाये।

पुनि बिचार मन महँ यह कीन्हा महापघ यह अति प्राचीन।

याको जन्म भयो को कारन, तबहीं मोहि करयो यह धारन।

शिव संहार करहिं सब केरा, हम तीनहुं कहँ काज घनेरा।

अगुणरुप श्री ब्रह्मा बखानहु, निराकार तिनकहँ तुम जानहु।

हम साकार रुप त्रयदेवा, करिहैं सदा ब्रह्म की सेवा।

यह सुनि ब्रह्मा परम सिहाये, परब्रह्म के यश अति गाये।

सो सब विदित वेद के नामा, मुक्ति रुप सो परम ललामा।

यहि विधि प्रभु भो जनम तुम्हारा, पुनि तुम प्रगट कीन्ह संसारा।

नाम पितामह सुन्दर पायेउ, जड़ चेतन सब कहँ निरमायेउ।

लीन्ह अनेक बार अवतारा, सुन्दर सुयश जगत विस्तारा।

देवदनुज सब तुम कहँ ध्यावहिं, मनवांछित तुम सन सब पावहिं।

जो कोउ ध्यान धरै नर नारी, ताकी आस पुजावहु सारी।

पुष्कर तीर्थ परम सुखदाई, तहँ तुम बसहु सदा सुरराई।

कुण्ड नहाइ करहि जो पूजन, ता कर दूर होई सब दूषण।

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श्री ब्रह्मा चालीसा Brahma Chalisa

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