।। दोहा ।।

जय ‘मेहेर’ साहिबे-जमाँ !

जय जय निराली शान हू !!

जय भक्त उनके मस्त उनके

खींच लाते जो उन्हें भूलोक पर !

धूल उनकी सिर लगाऊँ, हिये लाऊँ

प्रेम के उनके सहारे ‘मेहेर’ को मैं पाये जाऊँ।

।। चौपाई ।।

जय बाबा ! जय अन्तर्यामी ! जय अनन्त ! जय जगदाधार !

पूरण ब्रह्म सनातन स्वामी, अखिल विश्व के पालनहार ।।१।।

जय सौम्य मूर्ति ! जय शुभ, पावन ! जय मंगलकारी !

जय भक्त जनन की आस एक, जय जय अनन्त लीलाधारी ।।२।।

युग के राही धर्म सिपाही, जय तप के भण्डार हरे !

दरस मात्र से गति सुधरैअरु, क्षार होंहि अध पुञ्ज खरे ।।३।।

निराकार साकार रूप, जय नर-नारायण दोऊ !

भीतर बाहर सरग पतारन, तुम्हें छोड़ नहिं कोऊ।।४।।

भक्तन के जय ‘बाबा’ ! जय- जय बाबाजान के ‘मेहेरवान’ !

उपासनी के भण्डारी जय हे ! सुर-कुल पंकज भानु ।।५।।

सिध्द जनन के शहंशाह, जय दिव्य सनातन ज्योति !

निर्विकार जय धर्म-मूर्ति ! जय शान्ति अखण्ड विभूति ।।६।।

तुम सन प्रीति करे से प्रानी, तुम समान हुइ जाहीं ।

जनम-जनम के पातक छूटैं, अंत मेहेरपद पाहीं ।।७।।

व्याकुल मानव को हो तुम, अब पार लगाने आये ।

देश जाती अरु धर्म रंग का, भेद मिटाने आये ।।८।।

जगती को दिखलाने शक्ति, भक्ती की फैलाने महिमा ।

प्रगट हुये शीरींमाई से, सतजीवन की लेकर गरिमा ।।९।।

मैं गाऊँ क्या तुम्हरी महिमा, शेष शारदा पार न पाहीं ।

तुम हो अनन्त महिमा अनन्त, अन्त तुमहिं में सबहि समाहीं ।।१०।।

ड्यूढ़ी का मैं बनूँ पहरुआ, निसदिन गश्त लगाऊँ ।

अञ्जनि सुत सम करुँ चाकरी, तुव दर्शन नित पाऊँ ।।३१।।

देव दनुज मानव ॠषि मुनि सब, द्वार तिहारे आवैं ।

नारद मुनि वीणा से पावन, नाम तिहारो गावैं ।।३२।।

तू ही ब्रह्मा तू ही विष्णु, शिव अनादि तू ही मैं जानूँ ।

तू ही इन्द्र बृहस्पति तू ही, त्रिभुवननाथ तुम्हीं को मानूँ ।।३३।।

जय सृष्टि के कर्ता धर्ता, जय प्रतिपालक त्रिभुवन के ।

दीनबन्धु हे दयासिन्धु, जय भक्त तुम्हारे तुम भक्तन के ।।३४।।

जय प्रेममूर्ति ! जय शान्तिमूर्ति ! जय दिव्यमूर्ति हे बाबा ।

जय पतितपावन भक्तवत्सल, जय शक्तिपुञ्ज हे बाबा ।।३५।।

जय अधम-उधारन विपद-विदारन, तेज पुंज अविनाशी ।

पावन मूर्ति पूर्ण मर्यादा, जय घट-घट के वासी ।।३६।।

ऐसी कृपा होइ मो ऊपर, विनय करौं कर जोरी ।

मन-मन्दिर मम छोड़ न जाना, शरण पड़ा हूँ तोरी ।।३७।।

अटल रहे मम श्रद्धा भक्ति, अटल रहे यह प्रेम की ज्वाला ।

जरत-जरत यामें जर जाऊँ, बुझे तभी यह पावन ज्वाला ।।३८।।

जो ज्वाला प्रहलादहिं दीन्हीं, भनैं सन्त सब कोई ।

गिरि से गिरेउ अग्नि में डारेउ, साँच को आँच न होई ।।३९।।

ध्रुव सम निष्ठा अचल मिले, जिन साक्षी है ध्रुवतारा ।

अमर मिलन हो प्रियतम तुमसे, छूटे यह जग सारा ।।४०।।

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श्री मेहर चालीसा Meher Chalisa

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