।। चौपाई ।।
जन्म हुआ उज्जैन नगर में, मगरवाड़ा में स्वर्ग सिधारे। (1)
तपागच्छ अधिषायक देवा, श्रावकगण के ताज सितारे।
मस्तक पूजा उज्जयिनी में, आगलोट में धड़ की पूजा।
मगरवाड़े पिण्डी की पूजा, देखा ऐसा देव न दूजा।
कलियुग में है जाग्रत स्वामी, संघ सकल के मंगलकारी।
रोग शोक हरते हैं सबके, जपते तुमको नित नर-नारी।
श्यामवण अजमुख मनोहारी, शीश मुकुट तेजस्वीधारी।
विघ्न निवारक अन्तर्यामी, जिनवर के हैं आज्ञाकारी।
त्रिभुवन में है तेज अनुपम, माणिभद्र है जन हितकारी।
महामुनि धरते ध्यान तुम्हारा, महिमा देखी जग में भारी।
तुम देवों के देव निराले, वीर महाबत्ती तारणहारे।
दुःख संकट हर्त्ता हो देवा, जन-जन तेरा नाम पुकारे।
बावन वीर तुम्हारे वश में, चौसठ योगिनी नाम उच्चारे।
जो माणिभद्र जपे नित हरदम, उन सबको ये पार उतारे।
समकितधारी विपत्ति विनाशक, सहाय करो हे अन्तर्यामी।
दुःख-दारिद्र निवारो देवा! श्रावकगण के सच्चे स्वामी।
जो कोई मन से ध्यान लगाते, उनके सब संकट मिट जाते।
ऋद्धि-सिद्धिदाता सुखदायी, सुमिरन करके सब सुख पाते।
वन्ध्या को तुम सन्तति देते, निर्धन की झोली भर देते।
अंधों को तुम आँखें देकर, हरा-भरा जीवन कर देते।
कोढ़ी का कर रोग निवारण, कंचन सी काया कर देते। (21)
भूखों को देते हो भोजन, दुःखियों की पीड़ा हर लेते।
भूत-प्रेत-भय शत्रु विनाशक, माणिभद्र है षट्कर धारी।
तुम हो संघ सकल रखवारे, गुण गाती नित दुनिया सारी।
आधि-व्याधि हर्ता, सुखकर्ता, डाकिनी-शाकिनी कष्ट निवारो।
निर्बल को बल देते स्वामी, रक्षक बनकर पार उतारो।
कृपा आपकी हो जाये तो, अकाल मृत्यु का त्रास न होगा।
अकाल की छाया न पड़ेगी, महामारी उत्पात न होगा।
चोर-लुटेरों का भय जग में, कभी नहीं सन्ताप करेगा।
अग्नि का भय नहीं रहेगा, माणिभद्र सब विघ्न हरेगा।
शक्तिशाली माणिभद्र हमारे, सकल संघ के काम सुधारो।
कृपा करो हे अन्तर्यामी! भव-सिन्धु से पार उतारो।
कार्य सिद्ध करते भक्तों के, मन वांछित फल सबको देते।
देव हो सच्चे प्रकट प्रभावी, आप शरण में सबको लेते।
तन-मन से जो सेवा करते, पाप-पुंज उन सबके हरते।
कृपापात्र बनकर महाबली के, निश्चित वे वैतरणी तरते।
सन्मती तुम देते जन-जन को, माणिभद्र दादा! उपकारी।
सद्धिदाता, भाग्य-विधाता, भविजन के सच्चे हितकारी।
खड़ग त्रिशूल सदा करधारी, मुद्गर-अंकुश, नाग बिराजे।
छुमक ठुमक पग झांझर बाजे, कर में तोरे डमरु गाजे।
माणिभद्र की सेवा करके, सर्पदंश का भय नहीं रहता।
भक्त तुम्हारा नहीं कदापि, प्रकृति की बाधाएँ सहता।
माणिभद्र जपे जो कोई, घर-घर में मंगल होई।
जिनका नहीं है अपना कोई, माणिभद्र सहायक होई।
माणिभद्र की कृपा रहेगी, लक्ष्मी आ भण्डार भरेगी।
जीवन बगिया हरी रहेगी, ऋद्धि अपना काम करेगी।
माणिभद्र महाबली देवा! संघ सकल मिल करता सेवा।
जो मरते थे भूख-प्यास से, वो पाते अब सुमधुर मेवा।
व्यंतर देव उपद्रव करते, माणिभद्र बाधाएँ हरते।
शत्रु वहाँ आने से डरते, रक्षा वीर महाबलि करते।
माणिभद्र का सुमिरण करलो, आँख मूँदे तिजोरी भरलो।
पाप-पुंज सब अपने हरलो, शनैः-शनैः भवसागर तरलो।
इति-भीति व्यापे नहीं कोई, माणिभद्र जो मन में होई।
सम्पति जो होगी कहीं खोई, आन मिलेगी सत्वर सोई।
आराम-कुम्भ और कल्पवृक्ष है, माणिभद्र का नाम निराला।
कामधेनु अरु चिन्तामणि है, जीवन में कर देता उजाला।
माणिभद्र का ध्यान लगाओ, सपने में नित दर्शन पाओ।
आगलोट उज्जयिनी जाओ, मगरवाड़ जा गुण-गुण गाओ।
माणिभद्र जी कष्ट निवारें, उत्पातों से नित्य उबारें।
भक्तों के नित काम सँवारें, डूबती नैया पार उतारें।
माणिभद्र की भक्ति से ही, मन की सब शंकाएँ मिटती।
उनकी नित पूजा करने से, विपत्तियाँ सारी ही कटती।
माणिभद्र के सुमिरन से ही, मारग के कंटक हट जाते।
घुमड़-घुमड़ जो उमड़ चले हों, कष्टों के बादल छट जाते।
श्रद्धा जो रखते नर-नारी, जीवन में सुख वे पाते हैं।
संकट-मोचन माणिभद्र जी, घर में मंगल बरसाते हैं।
हम भूले-भटके भक्तों को, माणिभद्र जी! राह बताओ।
हम तो हे किंकर चरणों के, बाँह पकड़कर हमें उठाओ।
तपागच्छ के अधिष्ठायक हो, मेहर करो हे समकितधारी।
हम चरणों की सेवा चाहें, दर्शन दो स्वामी अविकारी।
माणिभद्र महाराज देवा, सकल संघ की रक्षा करना।
मन-मन्दिर में बसकर देवा, नित भंडार सभी के भरना।
रोज उतारें आरती देवा, प्रत्यक्ष दर्शन हमको देना।
मेवा-मिठाई, थाल चढ़ायें, चरणों में हमको लेलेना।
माणिभद्र हम गिरे हुओं को, दुविधाओं से आज बचाओ।
आज शरण में लेलो हमको, वीर महाबलि तत्पर आओ।
जाग्रत-ज्योति, महाबलि देवा, संघ चतुर्विध विनती करता।
आज अर्चना, पूजा करके, पाप-पुंज सब अपने हरता।
कलश हे महाबलि! वीर देवा! शरण में अब लीजिए।
हम तुम्हारे चरण-किंकर, देव! रक्षा कीजिए।
।। दोहा ।।
माणिभद्र चालीसा जो गाये, पूर्ण होगी कामना।
नैन नहीं होगा कदापि, उलझनों से सामना।